राष्ट्रीय (15/04/2013) 
दलितों का भला नहीं करते दलित संगठन और संस्थाएं

रति वर्ष चैदह अप्रैल को डाॅ0 भीमराव अंबेडकर का जन्म दिन दलितों के तमाम संगठन धूमधाम से मनाते हैं। बाबा साहेब के पदचिन्हों पर चलने के लिए आह्वान होते हैं। इसके अलावा भी बाबा साहेब को लेकर साल भर देश भर में सैकड़ों आयोजन होते हैं। इसके अतिरिक्त तमाम अन्य दलित विभूतियों के नाम पर कार्यक्रम होते हैं। अंबेडकर संबंधी अनेक सरकारी एजेंसियां और विभाग तथा दलितों के कल्याण के लिए तमाम सरकारी सहायता प्राप्त तथा स्वयंसेवी संगठन काम कर रहे हैं। इन तमाम आयोजनों और संगठनों में करोड़ों दलितों की सहभागिता रहती है। लेकिन शायद ही कोई बाबा साहेब के अथवा किसी अन्य दलित महापुरुष के पदचिन्हों पर चलने का मन से संकल्प लेता हो। गोष्ठियों, समारोहों में बातें तो अंबेडकरवाद की खूब होती हैं लेकिन मन से उस पर काम शायद ही कोई करता हो। अंबेडकर के बाद उनके जैसा दलितों का कोई सर्वमान्य (जिसे देश भर के दलित अपना नेता मान लें) अभी तक नहीं हुआ। कांशीराम ने दलितों में 1980 के दशक में एक संभावना जगाई थी, लेकिन जल्दी ही वे हाशिए पर चले गये, उनकी जगह मायावती ने अपने को राजनीति में सशक्त बना लिया। राजनीति में आकर दलितों के लिए उन्होंने क्या किया, यह सबके सामने है।
 अंबेडकर जयंती पर अधिकतर दलितों के कार्यक्रमों का समां यह रहता है कि सवर्णों से चंदा लेकर भव्य कार्यक्रम होते हैं, जिनमें आमतौर पर दलित विरोधी सवर्णों को ही मंच पर जगह दी जाती है, जिसमें मुख्य अतिथि से लेकर, विशिष्ट अतिथि, कार्यक्रम अध्यक्ष आदि होते हैं और अधिकतर वक्ता भी सवर्ण ही होते हैं। अधिकतर दलित केवल श्रोता होते हैं। कार्यक्रम आमतौर पर दो-तीन घंटे के और केवल रस्मी होते हैं। इससे मीडिया में जगह मिल जाती है। आयोजकों को इस बहाने सामान्य दलितों में विशिष्ट दिखाने का अवसर मिल जाता है। उनकी राजनीति चलती रहती है। इतने से ही लगता है कि दलितों के नेता दलितों का बहुत भला कर रहे हैं। इनके दैनंदिन जीवन को करीब से देखिए तो कहीं से भी यह अंबेडकर की शिक्षा पर जरा सा भी अमल करते नहीं दिखेंगे। यह केवल अंबेडकरवाद या दलितवाद का उपयोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने और अपनी राजनीति को अधिक सुदृढ़ करने के लिए करते हैं। अधिकतर दलित नेताओं की स्थिति यह होती है कि प्रदेश में सरकार बदलते ही यह सत्तारूढ़ दल के साथ नजदीकियां बढ़ाने लगते हैं। इनके संगठनों से जुड़े लोगों का इनके पीछे चलना मजबूरी होती है। इनका उद्देश्य व्यवस्था से अधिक से अधिक अपने लिए लाभ उठाना होता है। इनकी जकड़बंदी में फंसे अधिकांश लोग कुएं के मेढक की तरह एक सीमित दायरे में ही सोचते हैं। इनका स्वतंत्र चिंतन नहीं हो पाता, परिणामस्वरूप अपने हालातों में यह कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पाते।
 दलित लोग आज भी आरक्षण के पीछे बहुत भागते हैं। यह सही है कि आरक्षण ने दलितों का बहुत भला किया है, उन्हें आर्थिक और शैक्षिक रूप से आगे बढ़ाने में आरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसी के कारण उनमें चेतना का भी जबरदस्त विकास हुआ है। लेकिन प्रतियोगिता के इस दौर में भी आरक्षण के पीछे ही भागते रहने से संपूर्ण दलितोत्थान संभव नहीं जान पड़ता। इससे सवर्णों की इस धारणा को भी बल मिलता है कि अपने बलबूते दलित कुछ नहीं कर सकते। यदि आरक्षण बंद कर दिया जाए तो इन्हें सरकारी नौकरियां और अन्य तमाम सुविधाएं मिलनी मुश्किल हो जाएं। आज भी जब-तब सवर्ण जाति के लोगों के द्वारा फर्जी जाति प्रमाण पत्र बनवाकर नौकरियां हासिल करने और अन्य सरकारी लाभ प्राप्त करने के समाचार आते रहते हैं। मंडल आयोग की सिफारिशों और दलितों के आरक्षण को पानी पी-पीकर कोसने वाले बूढ़े, अधेड़ और नौजवान आज भी करोड़ों की संख्या में हैं।
 व्यवहार में हम देखते भी हैं कि अधिकांश दलित परिवारों की मानसिकता यह है उनका बच्चा सामान्यतः किसी तरह इंटर तक की पढ़ाई कर ले या अधिक से अधिक ग्रेजुएशन कर ले। हाईस्कूल से ही उसे किसी सरकारी विभाग में चपरासी या क्लर्क या मास्टर बनाने की तैयारी होने लगती है। अंबेडकर ने पढ़ाई पर बहुत जोर दिया है। लेकिन दलितों में पढ़ाई पक्ष बहुत कमजोर है। कक्षा की किताबों तक ही इनकी पढ़ाई सीमित रहती है। समाचार, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि की अन्यान्य किताबों से शायद इन्हें कोई बैर है। अधिकंाश दलित परिवारों में दैनिक समाचार पत्र मंगाना भी फालतू का खर्चा माना जाता है। नौकरी अथवा छोटे-मोटे काम धंधे के अलावा कला, साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता, फैशन, माॅडलिंग, फिल्म, संगीत आदि विविध विधाओं, पेशों में जाने की दलितों में रुचि नहीं है। जब इस पर बात की जाती है तो अधिकांश दलितों का उत्तर होता है कि इन विधाओं या पेशों में बहुत संघर्ष है, इतने संसाधन उनके पास नहीं होते। जबकि देखने में आता है चपरासी और सफाई कर्मी जैसी नौकरी पाने के लिए यह दिन रात एक कर देते हैं और लाखों रुपये रिश्वत देते हैं। उल्लेखनीय है कि सरकारी महकमों या निकायों में अब चतुर्थ श्रेणी की नौकरी पाने के लिए भी लाखों रुपये रिश्वत चलती है। यदि बच्चे को उसकी रुचि के अनुरूप प्रारंभ से ही प्रोत्साहित किया जाए तो इंटर की क्लास तक वह बहुत मामूली खर्च में भी अपनी रुचि के विषय में काफी कुछ कर चुका होगा। यद्यपि नये जमाने की चकाचैंध दलित युवाओं को बहुत आकर्षित कर रही है और वे यथोचित उसके लिए प्रयत्न भी कर रहे हैं लेकिन बहुतायत की इच्छा कहीं छोटी-मोटी नौकरी पा जाने भर की है। अपना ज्ञान बढ़ाने और किसी क्षेत्र विशेष में जिसमें सवर्णों का आधिपत्य है, जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाने की व्याधि से ग्रस्त हैं। यद्यपि हर क्षेत्र में आज भी दलितों को हतोत्साहित करने की मानसिकता है, लेकिन इसके बावजूद भी लोग सफल हो रहे हैं और आज पहले की अपेक्षा दलितों के पास अधिक अवसर है। वे साहस, लगन, धैर्य और समझदारी से काम लें तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।
 दलितों के एक बड़े वर्ग में सवर्णों और अभिजात्य वर्ग की बुराइयां तो खूब आ गई हैं लेकिन उनके जैसा काम करना उन्हें नहीं आया। यही कारण है कि वे तमाम कोशिशों के बावजूद एक सीमित दायरे में हैं और आरक्षण की मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। दलितों को भी अपने आपको बदलना होगा। अपनी लगन, सत्यनिष्ठा, मेहनत और संघर्ष से न सिर्फ वे अपने आर्थिक और सामाजिक हालात बदल सकते हैं बल्कि अपने वारे में व्यापक समाज में बनी हुई धारणाओं को भी खत्म कर सकते हैं।

-अयोध्या प्रसाद ‘भारती’-

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