उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम. हामिद अंसारी ने कहा है कि अनुभव से पता चलता है कि महिलाओं के मुद्दे मात्र उन समस्याओं से संबंधित नहीं हैं जिन्हें तदर्थ उपायों के जरिए हल किया जा सकता है। वे सामाजिक संगठनों, आर्थिक और राजनीतिक ढांचों तथा संबंधों के बारे में हैं। अधिक महत्वपूर्ण रूप से वे दृष्टिकोणों, पूर्वाग्रहों और रूढ़िवाद से संबंधित हैं जो कुछ सामाजिक मूल्य के अस्वीकार्य निर्णयों का रूप ले लेते हैं। आज यहां संसद के केंद्रीय कक्ष में आयोजित महिला अध्यक्षों के सातवें सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि सामाजिक पिरामिड के मूल में शोधक अनिवार्य हैं। अन्य शब्दों में लिंग संवेदनशीलता ऊपर से नीचे की प्रक्रिया की तुलना में नीचे से ऊपर की प्रक्रिया अधिक है। उन्होंने कहा कि किसी समाज में महिलाओं की संख्या लोगों के लगभग आधे के बराबर है और वे समान भागीदार हैं। मानव विकास से संबंधित एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को परिवर्तन की एजेंट और लाभार्थी के रूप में लिया जाना चाहिए। महिलाओं की क्षमताओं में निवेश और अपनी पसंद पर अमल करने का उन्हें अधिकार देना न केवल अपने आप में महत्वपूर्ण है बल्कि आर्थिक विकास और कुल मिलाकर विकास के प्रति योगदान का सुनिश्चित उपाय भी है। इसलिए यह विडंबना है कि लिंग समानता से संबंधित मामलों पर विश्व के अधिकांश भागों में पिछले दशकों में बड़े परिवर्तनों के बावजूद महिलाओं को प्रभावित करने वाले मुख्य मामले जैसे सामाजिक समानता, शिक्षा और रोजगार की समान पहुंच, समान काम के लिए समान वेतन और निर्णय लेने में बराबर की हिस्सेदारी की समस्या अभी भी हल नहीं हो पाई है। अंसारी ने कहा कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज और विशेष रूप से व्यापार, मीडिया, विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका, समाज में उनकी स्थिति और लिंग संबंधों पर उसके प्रभाव की बागडोर यदि महिलाओं के हाथ में दे दी जाए तो उससे निश्चित रूप से बदलाव आएगा। उन्होंने कहा कि हमें उन क्षेत्रों में परिस्थितियां पैदा करके इस प्रक्रिया को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है जहां महिलाओं को अवसरों की समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है ताकि उनकी पूर्ण क्षमता का लाभ उठाया जा सके। विधायी संस्थाएं इसमें पूर्णतः योगदान कर सकती हैं और उन्हें करना भी चाहिए। यह पर्याप्त न होने के बावजूद आवश्यक है। इस दिशा में अभी बहुत करना शेष है। उन्होंने कहा कि वैश्विक आंकड़े अपनी कहानी खुद बयां करते हैं। सन 1990 में संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक परिषद ने इस बात को मंजूरी दी कि विश्व में निर्णय लेने की स्थितियों में 30 प्रतिशत महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने का लक्ष्य सन 1995 तक प्राप्त किया जाना चाहिए। तथापि, उस वर्ष विश्व के सांसदों में महिलाएं मात्र 10 प्रतिशत थी। यह स्थिति आज भी कोई बेहतर नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय सांसद संघ (आईपीयू) के हाल के सर्वेक्षण के अनुसार, दोनों सदनों को मिलाकर विश्व में महिला सांसदों का औसत मात्र 20 प्रतिशत है। इस बारे में राष्ट्रीय अनुभव प्रासंगिक हैं। हमने देखा है कि भारत में नीचे से ऊपर का दृष्टिकोण अपनाने के बेहतर परिणाम निकले हैं। भारत की संसद में लिंगानुपात की दयनीय स्थिति है यहां कुल सदस्यता का लगभग 11 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थानों के आरक्षण का विधेयक एक सदन में पारित किया गया था लेकिन अन्य सदन में यह अभी भी लंबित है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि सन 1993 में एक संवैधानिक संशोधन पारित किया गया था जिसमें स्थानीय स्तर के निकायों यथा पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित करने का प्रावधान किया गया था। यह जमीनी स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की कारगर भागीदारी की ऐतिहासिक शुरुआत है। आज स्थानीय निकायों के लिए चुने गए लगभग 28 लाख प्रतिनिधियों में 12 लाख सदस्य महिलाएं हैं। इस आरक्षण से पहले इस क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिशत लगभग 4.5 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया है। यह विश्व के किसी भी स्थान पर चुनी हुई निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का संभवतः सबसे अधिक आकड़ा है। |