राष्ट्रीय (26/05/2010)
खेल से खिलवाड़ अब नहीं...!
पिछले दिनों खेल एवं युवा मामलों के मंत्रालय ने एक संशोधन करते हुए कहा था कि खेल संगठनों के अध्यक्ष पद पर कोई भी व्यक्ति 12 वर्षो से अधिक समय तक नहीं रह सकता है। केन्द्रीय खेल मंत्री एमएस गिल का यह फैसला राष्ट्र हित में है और इसके लिए वह तारीफ के पात्र हैं। उनकी सोच में सकारात्मक पहल दिखती है और खेल में सुधार के आसार भी। लेकिन जिस तरीके से खेल संघों के अध्यक्षों ने एक साथ मिलकर एमएस गिल की आलोचना की है, खेल मंत्रालय पर जमकर हल्ला बोला है उससे तो यही लगता है कि अपने पद से हटने को लेकर उन सभी में खलबली मची है। पद छोड़ने के नाम पर उन सभी ने इस रूप में खुद को पेश किया है जैसे खेल संघ उनका जागीर है और वे अपने पद से इस्तीफा दें देंगें तो खेल का बेड़ा गर्क हो जायेगा। सच तो यह है कि वे सभी खेल संघ को मठाधीश समझकर अर्से से काबिज हैं। कई महाशय तो दो-तीन दशक से अपने पद पर बैठे हैं। लिहाजा उनको अपने पद से इस्तीफा देने का उनका नैतिक अधिकार बनता है। लेकिन यह तो हद हो गई कि उन सभी ने खेल मंत्री की ही जमकर आलोचना करना शुरू कर दी है। खेल संघ के अध्यक्षों ने एक लाॅबी बना ली है और वे किसी भी कीमत पर हटने को तैयार नहीं है। करीब डेढ़ दर्जन खेल संघों के अध्यक्षों ने अपने पद पर बने रहने के लिए एड़ी चोटी एक कर दी है। यह भी सच है उनकी गोलबंदी राजनीतिक गोलबंदी नहीं है। वे अपने पद पर बने रहने के लिए अगर सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोलेंगे तो जमात से कहां से लायेंगे। लोकतांत्रिक प्रणाली में जमात की बहुत बड़ी भूमिका है। क्यों न वह मूकदर्शक बनकर ही रहे। लेकिन सड़क पर विरोध करने वालों को भीड़ दिखाना उनकी पहली जरूरत है। खेल संघों के प्रमुख प्रेस कांफ्रेंस में पानी पी पीकर खेल मंत्रालय के विरोध में जो भी भड़ास निकाल लें। लेकिन अपने पद पर बने रहने के लिए सरकार को मजबूर करने का हथियार उनके पास नहीं हैं। क्योंकि वे सभी पूर्व के चापलूस शासनतंत्रों के रहमोकरम पर अब तक अपने पद पर बने रहे हैं। यह भी सच है कि इतनें दिनों तक वे सभी कहीं न कहीं राजनैतिक छत्रछाया में ही थे। सत्तासीन सरकार उस सिस्टम को उनके माथे थोपकर किनारे रही। अन्यथा तीन दशक तक किसी भी व्यक्ति का एक पद पर बने रहना आश्चर्यजनक है। उसमें भी भारत जैसे लोकतांत्रिक देश मंे। आज उसका परिणाम खेल की दुर्गति के रूप में सामने है। आज देश का हर नागरिक विकास से सरोकार रखना चाहता है। अगर बदलाव की दरकार है तो वह उसमें अपनी भूमिका अदा करने को तैयार है। ऐसे में खेल संघों के प्रमुखो की वर्चस्वता की लड़ाई में शायद ही कोई व्यक्ति उनके समर्थन में खड़ा हो। उन महाशयों की इस तरह की प्रवृत्ति को देखकर खिलाड़ी भी हैरान हैं। एक राष्ट्रीय स्तर के हाकी खिलाड़ी से जब इस मसले पर उनकी राय ली गई तो उनका स्पष्ट कहना था कि खेल मंत्रालय का यह बहुत ही सराहनीय कदम है। जब उन पदों पर नये लोग आयेंगे तो खेल की बदहाली को देखकर सुधार करने का प्रयास जरूर करेंगे। ताज्जुब इस बात की है कि वे हटने को भी तैयार नहीं है। नैतिकता यही कहती है कि अगर खेल मंत्रालय ने इस तरह का फैसला किया है तो उन्हें सहज स्वीकार कर लेना चाहिए था, इससे उनकी साख जनता और खिलाड़ियों में बनी रहती जिसे उन्होंने खुद गिराया। दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के अब कुछ महीने ही शेष हैं। किस खेल में कितनी सुधार हुई है उसके परिणाम भी सामने आ जायेंगे। खेल में सुधार का आकलन हमेशा जीत से होती है चाहे वह कोई भी खेल हो। दर्शक और प्रशसंक वर्ग खिलाड़ियों से सिर्फ जीत की उम्मीद रखते है। इसलिए कहा जा सकता है कि खेल में सुधार का पैमाना ही जीत है। आज देश में कई खेलों की दशा बद से बदतर होती जा रही है। जहां तक क्रिकेट का सवाल है तो भारतीय क्रिकेट का संचालक बीसीसीआई है। क्रिकेट खिलाड़ियों द्वारा अच्छा प्रदर्शन नहीं किये जाने पर चयन समिति की भी सांसे फुलने लगती है। चयन समिति में बैठे लोगों को अपने पद से हटने का डर बन जाता है। बीसीसीआई के प्रमुख की कुर्सी पर कोई मठाधीश बनकर नहीं बैठ सकता है उनको अपने पद से इस्तीफा देना ही है। यह अलग बात है कि बीसीसीआई भी सियासत का अखाड़ा बनने से अछूता नहीं रहा। लेकिन खेल और खिलाड़ियों के उत्थान के लिए जितना बीसीसीआई प्रतिबद्ध है उतना किसी और खेलों में नहीं देखने को मिलती है। क्रिकेट और खिलाड़ियों के विकास तथा उसके परिणाम पर बीसीसीआई नैतिक रूप से जिम्मेदार है। इसके अलावा आप किसी भी खेल को देखें तो खिलाड़ियों में हताशा और निराशा दिखती है। संगठन ने हाकी की क्या दुर्गति की उसे पूरी दुनिया ने देखी। हाकी खिलाड़ियों के मेहनताना के मसले पर जिस तरह संगठन की साख गिरी उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। हाॅकी के अलावा दर्जनों खेलों की दशा और खराब होती जा रही है। खेल मंत्री ने उन खेलों की दशा को सुधारने पर विचार किया है तो इसमें बुरा क्या है। स्थिति को सुधारने के लिए किसी ने नैतिक साहस तो दिखाया। सुधार किस क्षेत्र में संभव नहीं है, सुधार करने के लिए सबसे पहले ईमानदार प्रयास करने की जरूरत है। लेकिन यह बिडम्बना ही है कि एक मंत्रालय ने जब संबंधित क्षेत्रों में सुधार करने कि पहल की है तो हाय तौबा इस तरह मचायी जा रही है जैसे उस मंत्रालय ने राष्ट्रहित में बहुत गलत फैसला कर लिया हो। जिस तरह से खेल संघों के प्रमुखों ने खेल मंत्रालय के फैसले का विरोध किया है उनसे कैसे यह उम्मीद की जाये कि वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक खेलों के नियमों का पालन कर रहे हैं। देश के बुद्धिजीवियों, खेल प्रसंशकों और खिलाड़ियों ने खेल मंत्री एमएस गिल की सराहना की है। एमएस गिल मंत्री जरूर है लेकिन राजनीति उनका पेशा नहीं रहा है। वह राजनीति के दांव पेंच नहीं जानते है। दर्जनों खेलों के बद से बदतर हालात होने के बाद गिल ने सुधार के लिए बीड़ा उठाया है। उसके लिए सबसे पहले नेतृत्व परिर्वतन पर बल दिया है। जब उस पद पर कोई और बैठेंगे तो वस्तुस्थिति पर उनका नजरिया भिन्न जरूर होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए खेल मंत्री ने खेल संगठनों के प्रमुख, महासचिव, सचिव तथा उच्च पदस्थ अधिकारियों के कार्यकाल को निर्धारित करने का फैसला किया है। खेल मंत्री एमएस गिल के इस फैसले में कहीं भी निहित स्वार्थ नहीं दिखता है और न ही इसमें कोई राजनीति दिखाई दे रही है। राष्ट्रीय नेतृत्व वाले खेल संगठनों के पदाधिकारियों का चयन भी लोकतांत्रित प्रणाली के आधार पर होना चाहिए। खेल संघ के प्रमुखों का चयन साल भर पर अनिवार्य कर देना चाहिए। जिससे उन सबको अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो कि अगर उनके कार्यकाल में विकास और सुधार नहीं दिखाई दिया तो अगले बार उनको अपने पद पर बने रहना मुश्किल हो जायेगा। खेल मंत्री का यह फैसला एक सदेश हैं उन मंत्रालयों के लिए, उन विभागों के लिए जहां सामंती और मठाधीशी व्यवस्था किसी न किसी रूप में आज भी कायम है और उससे उपजे हालातों को नियति मान लिया गया है। - अजय के गौतम |
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