राष्ट्रीय (30/04/2010) 
आज की हिंदी का एक नमूना हिंदी अखबार से: यह हिंदी है कि हिंग्लिश ?

 

यह देश का दुर्भाग्य है कि विभिन्न विषयों के हमारे विशेषज्ञ भाषाई दृष्टि से आम जनता से कटे हुए हैं । तात्पर्य यह है वे अपने विषय की बातें आम जनता के समक्ष उनकी भाषा में नहीं प्रस्तुत कर सकते हैं । वे यह बात भूल जाते हैं व्यावसायिक एवं अन्य कारणों से वे जैसी दक्षता अंग्रेजी में स्वयं हासिल कर चुकते हैं वैसी आम जनता के लिए संभव नहीं है । ये विशेषज्ञ यह नहीं सोच पाते हैं कि अच्छी अंग्रेजी सीखने के यह अर्थ कदापि नहीं हो सकते कि आप अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को नजरअंदाज कर दें और उसे निरादर भाव से देखें । ऐसा बेहूदा रवैया, जिसे मैं व्यक्तिगत तौर पर बेशर्मी भरा मानता हूं, दुनिया के अन्य प्रमुख देशों में देखने को नहीं मिलता है । वस्तुतः किसी गैर-अंग्रेजीभाषी देश, यथा चीन, जापान, कोरिया, फ्रांस, रूस अथवा ऐसे ही कोई अन्य देश, में एक विशेषज्ञ आम आदमी के साथ विचारों का आदान-प्रदान उसकी भाषा में बखूबी कर लेता है, और ऐसा न कर पाना अपना एक गंभीर दोष मानता है । वस्तुतः ऐसे सभी जनों को अंग्रेजी के अलावा अपनी भाषा पर भी पर्याप्त अधिकार होना चाहिए और ऐसा न कर पाने पर शर्मिंदगी अनुभव करनी चाहिए । मैं इन विशेषज्ञों से साहित्यिक स्तर की उच्च कोटि की भाषाई सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं करता, किंतु ‘आदत’ की जगह ‘हैबिट’, ‘परिवार’ के स्थान पर ‘फैमिली’, और ‘दीवाल’ के बदले ‘वॉल’, इत्यादि, जब उनके मुख से सुनता हूं तब माथा पटकने का मन होता है मेरा । इतनी अधिक भाषाई अक्षमता, अपनी ही मातृभाषा में ?
उपर्युक्त भाषाई अक्षमता के लिए विशेषज्ञों को एकबारगी माफ किया जा सकता है, परंतु जब ऐसी कमी समाचार माध्यमों और उनसे जुड़े पत्रकारों में दिखाई देती है, तो मैं विचलित हुए बिना नहीं रह पाता । मैं नहीं समझ पाता कि ये लोग हिंदी में पत्रकारिता कर रहे होते हैं या वर्णसंकर भाषा ‘हिंग्लिश’ में । यदि कोई व्यक्ति दावा करे कि वह अमुक भाषा में पत्रकारिता करता है तो उसे उस भाषा का पर्याप्त ज्ञान होना ही चाहिए । वस्तुतः पत्रकारों के बीच एकाधिक भाषा जानना आम बात होती है । उनमें तो यह काबिलियत होनी ही चाहिए कि जहां जिस भाषा की जरूरत हुई उस भाषा को पर्याप्त शुद्धता के साथ प्रयोग में ले सकें । क्या हमारे पत्रकार किसी चीनी या जापानी अखबार के लिए ऐसी पत्रकारिता कर सकते हैं जिसमें अंग्रेजी शब्द ठुंसे पड़े हों ? ऐसा करने की छूट भारतीय भाषाओं वाले ही ले सकते हैं । यह तो इस देश की बदकिस्मती है कि अंग्रेजी हमारे पढ़े-लिखे लोगों, विशेषतः शहरी जनों, के ऊपर बुरी तरह हावी है, इतना कि हिंदी को कुरूप बना डालने में कहीं कोई हिचक नहीं रह गयी है । वार्ताकारोंध्संपादकों का यह कर्तव्य बनता है कि वे किसी व्यक्ति के वक्तव्य के अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर तुल्य हिंदी शब्द प्रयोग में लें । समाचार तो मूल रूप से विश्व की किसी भी भाषा में हो सकता हैय उसे अपनी-अपनी भाषाओं में प्रस्तुत करना समाचारदाताओं का काम है । साफ-सुथरी भाषा बोलना-लिखना स्वयं में एक शिष्टाचार है ।
जब अखबारों के ये हाल हों तब टेलीविजन चैनलों के हाल तो बुरे होने ही हैं । टीवी चैनलों पर आजकल प्रस्तुत समाचार तथा अन्य कार्यक्रमों में तो अंग्रेजी इस कदर ठुंसी रहती है कि इन चैनलों को मैं हिंग्लिश चैनल कहना पसंद करता हूं । धार्मिक प्रकरणों के मामले में स्थिति कुछ बेहतर रहती है, लेकिन वहां संस्कृतनिष्ठ हिंदी दिखाई देती है । निजी चैनलों की तुलना में ‘दूरदर्शन’ में अवश्य कुछ भाषाई साफ-सुथरापन रहता है । निजी चैनलों पर शायद ही कोई प्रस्तुति देखने को मिले, जिसमें पूरे-पूरे वाक्य अंग्रेजी में न बोले जा रहे हों । अधिकांश प्रस्तुतियों के नाम अंग्रेजी के रहते हैं और देवनागरी लिपि तो उनके लिए जैसे अछूत बन चुकी हैय सब रोमन में ! उन्हें देखकर तो कोई भी विदेशी यही सोचेगा कि शुद्ध हिंदी में अभिव्यक्ति संभव नहीं है ।
अंग्रेजी शब्दों के अतिशय प्रयोग के पक्ष में एक तर्क मैं लोगों के मुख से सुनता आ रहा हूं । तर्क है कि ऐसा करने से हमारी भाषा हिंदी अधिक संपन्न एवं समृद्ध बनती है । क्या वास्तव में ऐसा है ? उत्तर अंशतः हां है पर पूरा नहीं । यह बात सही है कि नई आवश्यकताओं के अनुरूप नये-नये शब्द हर भाषा की शब्दसंपदा में जोड़ने पड़ते हैं । ऐसी आवश्यकता का अनुभव विज्ञान, चिकित्सा, अर्थतंत्र आदि के क्षेत्रों में कार्यरत लोग करते रहते हैं । तब आवश्यकता की पूर्ति के लिए या तो नये शब्द भाषा के नियमों के अनुसार रचे जाते हैं, या अन्य भाषाओं से ‘उधार’ ले लिए जाते हैं । अंग्रेजी में ऐसा होता आया है यह मैं अपने विज्ञान-विषयक अध्ययन के आधार पर जानता हूं । मैं ‘उधार’ की परंपरा का विरोधी नहीं हूं, परंतु यह गंभीर शंका मुझे बनी हुई है कि जिस लापरवाही और विचारहीनता के साथ अंग्रेजी शब्द हिंदी में ठूंसे जा रहे हैं वह भाषा को समृद्ध करने वाला नहीं है । समझदार आदमी उन शब्दों को उधार लेगा जिनकी सचमुच में जरूरत हो । लेकिन मेरे हिंदीभाषी मित्र क्या कर रहे हैं ? यही न कि हिंदी के शब्दों को अंग्रेजी शब्दों से विस्थापित कर रहे हैं ? क्या ‘परिवार’ के बदले ‘फैमिली’ और ‘इस्तेमाल करना’ के बदले ‘यूज करना’ किस जरूरत के अनुकूल है ? वास्तव में हम हिंदीभाषी अपनी भाषाई क्षमता खोते जा रहे हैं और अपनी अक्षमता को छिपाने हेतु खोखले तर्क पेश करते हैं । आज हालात यह हैं कि हमारे युवक-युवतियां तथा किशोर-किशोरियां रोजमर्रा के हिंदी शब्दों को भूलते जा रहे । वे हिंदी में गिनतियां नहीं सुना सकते, रंगों के नाम, साप्ताहिक दिनों के नाम नहीं ले सकते । उन्हें साल के बारह महीनों और छः ऋतुओं के नाम मालूम नहीं । अंग्रेजी स्कूलों के बच्चे तो ‘आंख-कान’, ‘कुत्ता-बिल्ली’ के लिए ‘आई-नोज’, ‘डॉग-कैट’ कहने के आदी हो चुके हैं । तो क्या हिंदी को समृद्ध करने का यही सही तरीका है ? सोचिए ।

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