राष्ट्रीय (25/04/2010)
जीवन-साथी: स्त्री-पुरूष का नैसर्गिक मिलन
प्रकृति ने पुरुष और स्त्री को ही परस्पर जीवन-साथी बनने के लिए बनाया है। दोनों का जीवन परस्पराश्रयी है दोनों की भावनाएँ और दैनिक इच्छाएँ परस्पर पूरक हैं। साथी बनकर ही दोनों का जीवन पूर्ण होता है। इस नैसर्गिक विधान को निर्बाध बनाने के लिए ही समाज ने विवाह की प्रथा का आविष्कार किया था। किन्तु विवाह स्त्री-पुरुष को वैधानिक साथी देने में ही सफल हो सका है। प्रत्येक पुरुष को पत्नी मिल जाती है और स्त्री को पति मिल जाता है लेकिन साथी लाखों में एक को मिलता है। जीवनपर्यन्त साथ रहने का प्रण करने से ही हम जीवन-साथी नहीं बन जाते। यह प्रण प्रायः वासना के प्रथम उन्माद में किया जाता है और जीवनपर्यन्त समाज के अपवाद-भय से निभाया जाता है, स्वेच्छा से नहीं। इसीलिए विवाह के सूत्र स्नेह के नहीं, घृणा के बन जाते हैं और पति-पत्नी जीवन-सखा बनने के स्थान पर जीवन-शत्रु बन जाते हैं। साधारणतया यह कल्पना की जाती है कि स्त्री-पुरुष की नैसर्गिक कामेच्छा ही दोनों को सफल जीवन-साथी बनाने के लिए पर्याप्त प्रेरणा है। यह भूल है। काम-सम्बन्धी आकर्षण क्षण-स्थायी होता है। कामजन्य इच्छाओं की तृप्ति के बाद वह नष्ट भी हो जाता है ऐसे क्षण-भंगुर आधार पर जीवन प्रेम की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। जीवन-साथी बनने के लिए जिस आकर्षण की आवश्यकता है वह दैहिक नहीं, आत्मिक है। दो शरीर नहीं-बल्कि दो आत्माएँ ही जीवन-साथी बन सकती हैं। स्त्री-पुरुष का प्रथम मिलन केवल दैहिक आकर्षण से भी सम्भव हो सकता है-किन्तु जीवन-भर का साथ उन दोनों की मानसिक या आत्मिक एकरुपता पर ही निर्भर है। एकरूपता से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि दोनों के शील-स्वभाव में समानता होनी चाहिएय या दोनों का व्यक्तित्व एक-सा होना चाहिएय अथवा कि यह दोनों को एक-दूसरे में इतना मिट जाना या खोजाना चाहिए कि वे एक प्राण दो शरीर दिखाई देने लगें- उनमें एकत्व आ जाए। मैं इस सम्पूर्ण समर्पण को न तो सम्भव ही मानता हूँ और न अभीष्ट ही समझता हूँ। स्वयं को मिटा देने के इस उपक्रम में मनुष्य प्रायः अपनी सब विशेषताओं को मिटा देता हैय अपनी स्वतन्त्रता का, अपने व्यक्तित्व का नाश कर देता है। मेरा विश्वास है कि दो स्वतन्त्र आत्माएँ ही सफल जीवन-साथी बन सकती हैय परतन्त्र समर्पित या विनष्ट आत्माएँ नहीं। स्वयं को नष्ट करने के स्थान पर यदि दोनों एक-दूसरे के विकास में सहायता देने का यत्न करें तो वे अधिक सफल जीवन-साथी बन सकते हैं। जो प्रेम प्रेमी के विकास में सहायक नहीं होता वह प्रेम नहीं हो सकता। जिन दो व्यक्तियों का जीवन एक-दूसरे की वृद्ध और एक-दूसरे के विकास में सहायक नहीं होगा, वे जीवन-साथी नहीं बन सकेंगे। क्योंकि जीवन-साथी बनने का कोई भी कार्य विनाशोन्मुख नहीं हो सकता। वह सदा रचनात्मक होगा। जो स्त्री-पुरुष विवाहित जीवन को सफल बनाने या जीवन-साथी को अनुकूल बनाने के लिए विशेष धारणा-ध्यान या जप-तप की साधना करते हैं वे भी भूलते हैं। इसके लिए किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहींय केवल सरल, सहानुभूतिपूर्ण हृदय और स्वतन्त्र विवेक की आवश्यकता है। भगवान ने ये दोनों चीजें साधारण से साधारण स्त्री-पुरुष को दी हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक भय से प्रेरित होकर हम इन स्वगत गुणों को भूल जाते हैं। तब हमारे हृदय और मस्तिष्क विकृत हो जाते हैं। स्वार्थी और रूढ़ियों से बंधे हुए व्यक्ति कभी सच्चे जीवन-साथी नहीं हो सकते। सहानुभूतिपूर्ण हृदय और स्वतन्त्र विचारशील मस्तिष्क-यही जीवन-साथी बनने के उपकरण हैं। व्यापारिक जीवन की विषमताओं ने हमारे इन उपकरणों को कुन्द बना दिया है। विज्ञान के नए आविष्कार हमें भौतिक जगत् में बहुत ऊँचा लिए जा रहे हैं-किन्तु हमारा बौद्धिक धरातल अभी तक बहुत नीचा है। वह अभी तक पुरानी रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है। इसलिए हमारे बाह्य या आन्तरिक जगत् में बहुत विषमता पैदा हो गई है। इन विषमताओं की आँधी में हम अपनी मनुष्यता और मनुष्योचित गुणों को खो बैठे हैं। सफल जीवन-साथी बनने के लिए हमें फिर मानवोचित गुणों का विकास करना है। हमें यह न भूलना चाहिए कि हमारे जीवन में भौतिक तत्त्वों की अपेक्षा आत्मिक तत्त्वोंका अनुशासन अधिक है। आत्मिक गुण ही हमें जीवन में सफल बना सकते हैं। सफल जीवन ही सफल जीवन-साथी बन सकता है। आज के युग में मस्तिष्क और हृदय की स्वतन्त्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति सच्चे अर्थों में जीवन-साथी नहीं बन सकता। धर्म की जंजीरें या कानून की कड़ियाँ किन्हीं दो व्यक्तियों को एक ही रस्सी में जन्म-भर बाँध जरूर सकती हैं, किन्तु वह बन्धन दो जीवित व्यक्तियों का आत्मिक बन्धन न होकर दो मृत देहों का बन्धन होगा। इसी तरह प्रेम का क्षणिक उन्माद भी दो शरीरों में कुछ देर के लिए वासना की चिन्गारियाँ पैदा कर सकता हैय वह भोग की आग में दोनों को जलाकर राख भी कर सकता हैय लेकिन दो स्वतन्त्र, जीवित आत्माओं को जीवन-साथी बनाने में वह सफल नहीं हो सकता। विवाह करने से कोई जीवन-साथी नहीं बन जाता। जो पति-पत्नी जीवन-साथी नहीं बनते, केवल अपनी सुविधा के लिए एक-दूसरे के शरीर व मन को उपयोग करते हैंय उनका घर घर नहीं, नरक बन जाता है। घर को स्वर्ग बनाना हो तो पति-पत्नी को परस्पर अनुरूपता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। -हेलेना मिंज |
Copyright @ 2019.