संजय वशिष्ट ना तो शायर हैं , ना कवि और ना ही गीतकार। लेकिन उनके पिछले तीस सालों ने उनसे कुछ न कुछ लिखवाया जरूर है। आज उनकी कवितांओं , गीत और गज़ल का संकलन सभी के सामने है और वो है .....धूप की पत्तियां......। श्री वशिष्ट की जिंदगी की ये पहली पुस्तक है जिसे संजोने मे उन्हे करीब तीस सालों का समय लग गया। लेकिन अकेली ये पुस्तक और इसकी हर रचना आम आदमी के दर्द और खुशी को आसानी से बयां कर देती है। सीधे, सरल और सादगी का जीवन यापन करने वाले संजय वशिष्ट मे एक कवि छिपा होगा शायद ये कम ही लोग जानते होंगे। लेकिन जब उनकी पुस्तक दुनिया के सामने होगी तो शायद उस सीधे साधे व्य़क्ति के वे विचार जिन्हें उसने इतने सालों तक यूं ही संजोकर रखा एक मिसाल होंगे उनके लिए जो रोजमर्रा के जीवन को जीते हैं लेकिन कलम उठाने की जिन्होंने सोची भी नहीं होगी। करीब सत्तर से ज्यादा पृष्ठों वाली इस पुस्तक मे चालिस रचनांएं हैं जो मर्मस्पर्शी हैं कहीं ना कहीं मन को झकझोर कर रख देती हैं। इस पुस्तक की पहली रचना का विषय मां से शुरू होता है अगरउसकी चंद पंक्तियां यहां ना लिखी जायें तो यह लेखक के साथ अन्याय होगा....... आंगन मे उम्मीद की बेल सज़ा के अब सुला दे मुझे तू लोरी सुना के।। बहुत दिनों से भटकता रहा हूं मैं डांट दे मुझे तू, घर पे बुला के।।
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