राष्ट्रीय (19/01/2010)
कुम्भ का इतिहास
विष्णुपुराण में वर्णित विष्णु यज्ञ की कलशोत्पति कथा के अनुसार उत्तर में हिमालय पर्वत के समीप क्षीर सागर को मथने के लिए देवों और दैत्यों ने मिलकर एक साहसिक अभियान सम्पन्न किया था । कच्छप अवतार भगवान विष्णु की पीठ पर विराट मन्दराचल पर्वत को मथनी बनाकर रखा गया । नागराज वासुकी को रस्सी बनाया गया । एक ओर से देवों ने तथा दूसरी ओर दैत्यों ने सागर को मथना शुरू किया । इस मंथन से चौदह रत्न निकले । सबसे अन्त में धन्वंतरि ही अमृत से पूरित कुम्भ को लेकर अवतरित हुए । अमृत कुम्भ को देखते ही इन्द्र का पुत्र जयंत झपटा और अमृत कुम्भ को धन्वंतरि के हाथों से छीनकर भाग निकला । देवता कुम्भ की रक्षा के लिए सन्नद्ध हुए तो दैत्य इस घटना से बौखलाकर जयंत से कुम्भ छीनने के लिए भागे । जयंत बारह दिन तक (जो कि मनुष्यों के बारह वर्ष माने जाते है) कुम्भ को लिए भागता रहा । इस अवधि में उसने जिन बारह स्थानों पर वह कलश रखा उन्हीं बारह स्थानों में चार - प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन तथा नासिक पृथ्वी पर हैं एवं शेष आठ स्थान देवलोक में माने जाते हैं । |
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